लोकगीत

कुमाउनी लोक गीतकार हीरा सिंह राणा का ऐसा गीत जिसे पढ़, सुन व समझने से मिलता है मानसिक सुकून

Folk Song: Heera Singh Rana

प्रसन्नचित्त डेस्क, हल्द्वानी। एक दौर ऐसा था जब इस गीत को सुनने के लिए भीड़ उमड पड़ती थी. इस गीत में पहाड़ की नारी का सौंदर्य झलकता है. आप भी अगर ध्यान से इस गीत के शब्दों को महसूस करेंगे तो आनंद आएगा। सुकून मिलेगा. यह गीत वरिष्ठ पत्रकार व लोक मर्मज्ञ चारू तिवारी की ओर से हीरा सिंह राणा( Heera Singh Rana) पर आधारित पुस्तक लस्का कमर बांदा से…

रुपसा रमूली

रुपसा रमूली घुंड़ुर न बजा छम-छम।

जागि जा माठ-माठू जौंला किले जैंछे चम-चम।।

नाखै की नथुलि में खाली गाल्हैड़िमा डोरा,

यौ त्यारा घागरि का लटक जस नाचनीं मोरा।

आडु़ई मुनैड़ि बल्याई चमकैं है चम-चम।।

जागि जा माठ-माठूं…।।

यौं फूला बदन त्यौर मुखड़ी पिडई-पूरा,

घुड़ग भितेर लुका मुखैड़ी, लाग हौं मकैं त्यूरा।

चड़नी उमर परांण जौभनमा घम-घम।।

जागि जा माठ-माठू…।।

आेये बाना त्यर झंकरा जहीं उड़नी पौंनमा,

यस देखिनी जस बधवा लागनी भदौ सौंणमा।

हैंसि बती नी शरमाा भागी, मेरि निकई दम-दम।।

जागि जा माठ-माठू…।।

झन हो कभैं त्येरि उमरा बीसै की उन्नीस,

तेरि माया लागियै रेजौ पाणीं कसी तीस।

ते देखी-देखी बै हिया, ज्यौंन छना हम-हम।।

जागि जा माठ-माठूं…।।

आंस त्यरा मैकैं लैजैं, मेरि हैंसी तिकैंणी,

तू रये अमर वे शुवा, मेरी एेजौ निरैंणी।

दुनियै कि आंखी छ खोटी, तू हैंसिये कम-कम।।

जागि जा माठ-माठूं…।।

रुपसा- रूपवती, माठ-माठू- धीरे-धीरे, चम-चम – तेज कदम, पिड़र पूर- पीले रंग से आलोकित, तयूरा-दर्पण की धूम में चमक के समान, धम-सम- भरपूर यौवन, झंकरा- उलझे बाल, बधवा-बादल।

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