गणेश जोशी
जैसा की कहा जाता है, स्त्री-पुरुष संबंधों की सांगोपांग विवेचना अभी तक नहीं हो पाई है. जहां तक विवाह परंपरा का सवाल है इसे लेकर दुनिया भर में तमाम तरह की अवधारणाएं प्रचलित हैं. भारत में विवाह परंपरा यानी परिवारवाद को स्थापित करने का श्रेय गौतम ऋषि के वंशज और उद्दालक-आरुणि के पुत्र श्वेतकेतु को जाता है. वह तत्वज्ञानी आचार्य थे. ऋषि अष्टावक्र के भांजे थे, जिनका विवाह देवल ऋषि की कन्या सुवर्चला से हुआ था.
श्वेतकेतु ने पुरुषों के लिए पत्नीव्रत और महिलाओं के पतिव्रत का नियम बनाया था. ताकि दोनों एक दूसरे के प्रति वफादार रहें. हिंदू रीति-रिवाजों में विवाह के समय अग्नि को साक्षी मानकर लिए गए सात फेरों का मतलब भी तो यही है. सात फेरों के समय आचार्य की ओर संस्कृत में बताए गए नियम परिवार संस्था को समृद्ध रखने का ही तो तरीका है. हालांकि आधुनिक मनोविज्ञान व समाजविज्ञान में इसे काउंसलिंग के तौर पर प्रयोग किया जाता है. चीज वही है, पर तरीका नया है.
बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में इतिहास के प्रोफेसर रहे डाॅ. महेश चंद्र जोशी अपनी शोध पुस्तक प्राचीन भारत में दांपत्य मर्यादा में लिखते हैं, मैकलेनन के अनुसार भी अनेक देशों में ऐसी परंपरा पायी जाती है, जिससे पता चलता है कि पूर्वकाल में विवाह संस्था नहीं थी और एक न एक विधि प्रवर्तक आचार्य द्वारा इसका प्रवर्तन किया गया था. मिस्र देश में मेंस, चीन में फोहो, ग्रीक देश में सेक्रोपस और भारत में श्वेतकेतु ने विवाह संस्था का प्रवर्तन किया था. हालांकि टेलर, स्टार्च जैसे कई विद्वान इनसे सहमत नहीं रहे.
डा. जोशी का शोध इतने तक सीमित नहीं रह जाता है, वह आगे प्रो. कृष्णगोपाल गोस्वामी का तर्क देते हैं, यदि विवाह संस्था के विकास का सिद्धांत स्वीकार किया जाता है तो इसे व्यक्ति विशेष के द्वारा आकस्मिक रूप से परिवर्तित नहीं, अपितु विकास की एक स्वाभाविक प्रक्रिया के रूप में माना जाएगा. उन्होंने तमाम अध्ययनों के बाद माना कि विवाह संस्था की कल्पना भारतीय साहित्य में मानव-सृष्टि के शैशवकाल से ही रही है.
डा. जोशी लिखते हैं, जब हम ऐसी कल्पनाओं तथा संभावनाओं से अलग साहित्यिक साक्ष्यों को देखते हैं तो विदित होता है कि ऋग्वैदिक काल से बहुत पहले से ही इस देश में विवाह संस्था सुप्रतिष्ठित थी तथा विवाह संस्कार का सम्यक रूप से विकास हो चुका था.
क्रमश…
वरिष्ठ पत्रकार गणेश जोशी के फेसबुक पेज से साभार