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शेखर जोशी हर किसी के लिए प्रेरणास्रोत, 90 वर्ष तक की उम्र में लेखन रखा था जारी, अब हमारे बीच नहीं रहे

Hindi Literature

प्रसन्नचित्त डेस्क। हिंदी के चमकते सितारे शेखर जोशी हम सभी से बिछड़ गए हैं. अब वह हमारी बीच नहीं रहे, लेकिन उनकी रचनाएं हमें उनके होने का एहसास हमेशा कराते रहेंगी. वैसे भी उनकी रचनाओं से समाज को प्रेरणा मिलती है और वह चाहने वालों के बीच सदा जीवंत रहेंगे.

मंगलवार चार अक्टूबर को गाजियाबाद में उनका निधन हो गया. इससे उनकी रचनाओं को पढ़ने वालों को बड़ा झटका लगा है. उन्होंने हिंदी की जिस तरीके से सेवा की, उसके चलते वह हमेशा हिंदी प्रेमियों के दिलों में जिंदा रहेंगे.

प्रसिद्ध कथाकार शेखर जोशी का जन्म उत्तराखंड के अल्मोड़ा जिले के ओलिया गांव के रहने वाले थे. उनका जन्म गांव में ही 10 सितंबर, 1932 को हुआ था. उनकी प्रारंभिक शिक्षा अजमेर और देहरादून में हुई. इंटरमीडिएट की पढ़ाई के दौरान ही सुरक्षा विभाग में ईएमई अप्रेंटिसशिप के लिए चयन हो गया था, जहां वह वर्ष 1986 तक सेवा में रहे. उसके बाद स्वैच्छिक रूप से पदत्याग कर स्वतंत्र लेखक बन गए.

उनकी प्रमुख रचनाओं में दाज्यू, कोशी का घटवार, बदबू, मेंटल जैसी कहानियां हैं. यह कहानियां पाठकों को बहुत अधिक पसंद आई. शेखर जोशी की कलम पर्वतीय क्षेत्रों की गरीबी, कठिन जीवन संघर्ष, उत्पीड़न, यातना, उम्मीद और धर्म-जाति से जुड़ी रूढ़ियों पर हमेशा चलती रही.

ये हैं प्रमुख रचनाएं…

कोशी का घटवार 1958
साथ के लोग 1978
हलवाहा 1981
नौरंगी बीमार है 1990
मेरा पहाड़ 1989
डागरी वाला 1994
बच्चे का सपना 2004
आदमी का डर 2011
एक पेड़ की याद

ये मिले हैं सम्मान
अपनी प्रसिद्ध रचनाओं के लिए शेखर जोशी ने उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान का महावीर प्रसाद दिवेदी पुरस्कार, साहित्य भूषण, पहल सम्मान, मैथलीशरण गुप्त सम्मान और श्रीलाल शुक्ल सम्मान आदि तमाम राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त किए हैं.

साहित्यकारों ने जताई शोक संवेदना

टि्वटर पर भाषाविद् सुरेश पंत ने अपने संदेश में लिखा है. हिंदी कथा जगत के देदीप्यमान नक्षत्र शेखर जोशी नहीं रहे. किंतु उनका योगदान सदा अमर रहेगा. दो महीने पहले मेरे निवास पर पधारकर दर्शन दिए थे. नब्बे वर्ष में भी स्वस्थ और सजग, इतना कोमल, मधुर व्यक्तित्व भुलाए नहीं भूला जा सकता. सादर श्रद्धांजलि शेखर दा

प्रसिद्ध साहित्यकार दिनेश कर्नाटक लिखते हैं, प्रिय कथाकार शेखर जोशी वर्ष 2014 में हल्द्वानी अपनी रिश्तेदारी में आये थे। तब ‘अनहद’ पत्रिका ने उन पर एक विशेषांक निकाला था, जिसमें मैंने भी उनकी कहानियों पर लिखा था। उन्होंने फोन कर बताया कि वे हल्द्वानी आये हैं। उनकी कहानियों पर तथा इलाहाबाद के दिनों पर खूब बातें हुई। उस्ताद कहानीकार की सहजता और सरलता आज भी याद है।

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