हल्द्वानी से ओम पर्वत की रोमांचक यात्रा
Exciting journey from Haldwani to Om Parvat
गणेश जोशी
पार्ट-1
घूमने का अपना अलग ही आनंद है। यात्रा का कोई विकल्प नहीं। जब आप ऐसी जगह घूमने चले जाएं, जहां आप स्वयं के हो जाते हैं। आपको सबसे अधिक व्यस्त रखने वाला उपकरण मोबाइल भी पूरी तरह बंद हो जाता है। तब आपको अपने होने का एहसास होने लगता है। तब खुद के बारे में और आसपास को महसूस करने का सुनहरा अवसर मिल जाता है। ऐसा ही मेरे साथ भी हुआ। जब मैं कुमाऊं के दूरस्थ क्षेत्र हिमखंडों के बीच धारचूला पहुंचा। यात्रा का हर पल अद्भुत और अविस्मरणीय रहा।
शुरुआत होती है 38 डिग्री सेल्सियस तापमान वाले शहर हल्द्वानी से। जहां मेरा निवास स्थान और कार्यस्थल भी है। काम की आपाधापी के बीच मन शांति की तलाश के लिए छटपटाने लगता है। बेचैन हो उठता है। आखिर एक ही तरह का काम बार-बार दोहराने से मन उचाट होना स्वाभाविक है। आगे काम और बेहतर तरीके से हो सके। ऐसे में ब्रेक लेना नितांत आवश्यक है। ऐसे में मन में सिर्फ एक ही बात सूझती है सुकून वाली जगह जाने की। जब आपको अपने आफिस और घर से अनुमति मिल जाए तो फिर क्या कहना। फिर तो बल्ले-बल्ले होने वाली ठहरी।
30 जून की सुबह अपने पांच साथियों के साथ बोरिया-बिस्तर लेकर यात्रा को निकल पड़ा। यात्रा को लेकर रोमांच है। हर किसी का मन ऊंची चोटियों पर स्थित बुग्यालों में कुछ पल विश्राम करने का है। हिमालय की चोटियों को चूमने की है। आखिर हो भी क्यों न। हिमालय के आकर्षण से देवी-देवता भी नहीं बच सके हैं। जिन्होंने अपना स्थायी आवास तक उन्हीं पर्वतों की चोटियों पर बना लिया। अधिसंख्य लोगों का वहां पहुंचना तो दूर स्मरण मात्र से मंत्रमुग्ध हो जाते हैं।
रोमांच, पर्वत, पहाड, नदियों और बियावान बीहड़ जंगलों के सैरगाह के शौकीनों की टीम में शामिल होना मेरे लिए भी रोमांचक है। मेरा रोम-रोम भी हिमालय पर्वत की चोटियों के आकर्षण से प्रफुल्लित है। अगर हम हल्द्वानी से भीमताल, गरमपानी, अल्मोड़ा दन्या होते हुए पिथौरागढ़ व धारचूला पहुंचते तो 50 किलोमीटर की दूर कम नापनी पड़ती, लेकिन शौक तो शौक। साथियों के सामूहिक निर्णय के चलते हम हल्द्वानी से चोरगलिया, सितारगंज, खटीमा, बनबसा, टनकपुर, चम्पावत, लोहाघाट, गुरना, पिथौरागढ़ होते हुए धारचूला पहुंचे।
धारचूला पहुंचते ही यात्रा की थकान महसूस होने लगी, लेकिन वैसी थकान भी नहीं थी कि निढाल पड़ जाएं। जैसे-जैसे हिमालय के नजदीक पहुंचने लगे। रोमांच बढ़ने लगा। धारचूला में कुमाऊं मंडल विकास निगम के गेस्ट हाउस में ठहरे। जहां किराया और भोजन बाहर के अन्य होटलों की अपेक्षा महंगा है। हालांकि सुरक्षा का भाव इसी गेस्ट हाउस में है। सामने काली नदी और नेपाल का दार्चूला क्षेत्र है। रात के भोजन तक काली नदी को निहारते रहे। नजारा बेहद खूबसूरत। कई बार मन काली नदी के कल-कल की ध्वनि में ही खो जा रहा था।
धारचूला एक तरह का पड़ाव है। जब ऊंचाई वाले रं समाज के गांव बर्फ से ढक जाते हैं। ग्रामीण बर्फ पिघलने तक धारचूला में ही ठहरते हैं। फरवरी-मार्च में फिर अपने मूल गांव पहुंचते हैं। जहां विपरीत परिस्थितियों में जीवन यापन करना होता है। धारचूला शहर की अपनी खूबियां हैं। हालांकि गांव व कस्बों की वो रौनक पहले जैसी नहीं रह गई है। तभी तो आइएएस व संस्कृत के संरक्षण को लेकर समर्पित रहने वाले धीराज सिंह गर्ब्याल फेसबुक पर लिखते हैं, अब न तो पहले की तरह का धारचूला रहा और न ही शतरंज के शौकीन खिलाड़ी। हालांकि नए लोगों के लिए धारचूला का अपना अलग ही आकर्षण है। तहसील के सामने रं संग्राहलय भी है। जहां रं लोगों का समृद्ध इतिहास को एक नजर में देखा जा सकता है।
सचमुच में मुझे धारचूला से ही हिमालय का एहसास होने लगा। मन हिमालय
की चोटियों में विचरण करने को मचलने लगा था। रात हो चुकी थी। हमने रात के भोजन में दाल, सब्जी, रोटी, चावल लिया और फिर गेस्ट हाउस में ही सो गए।
क्रमश…